Veer Birsa Munda का जन्म 15 नवम्बर 1875 को झारखंड के उलीहातू में हुआ था। वह मुण्डा जाति के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, धार्मिक नेता और लोक नायक थे। बिरसा मुंडा भारतीय उपमहाद्वीप के उन आदिवासी नायकों में गिने जाते हैं जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया और अपने समुदाय के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। उनकी शहादत 9 जून 1900 को हुई थी, जब वह महज 25 साल की उम्र में अंग्रेजों की हिरासत में शहीद हो गए थे। उनके योगदान को आज भी आदिवासी समाज में याद किया जाता है और उनकी जयंती, ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाई जाती है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
बिरसा मुंडा का जन्म एक गरीब आदिवासी परिवार में हुआ था। उनका बचपन कठिनाइयों में बिता, लेकिन उन्होंने बचपन से ही शिक्षा की ओर अपनी रुचि दिखाई। प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने सलगा में जयपाल नाग से प्राप्त की। वे कुछ समय तक जर्मन मिशन स्कूल में भी पढ़े, लेकिन जब उन्हें यह महसूस हुआ कि अंग्रेज़ आदिवासी समुदाय को धर्मांतरण के लिए शिक्षा का इस्तेमाल कर रहे हैं, तो उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। इस अनुभव के बाद उन्होंने एक नया धार्मिक विश्वास ‘बिरसैत’ की स्थापना की, जो आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक विश्वासों की ओर लौटने और अंग्रेजों के प्रभाव का विरोध करने की प्रेरणा देता था।
उल्गुलान आंदोलन
बिरसा मुंडा का संघर्ष 1899-1900 के बीच ‘उल्गुलान’ (महान विद्रोह) के रूप में परिपूर्ण हुआ। यह आंदोलन ब्रिटिश शासन और स्थानीय जमींदारों (दिकू) के खिलाफ था, जिसमें आदिवासी समुदायों के अधिकारों, विशेष रूप से भूमि और संसाधनों की रक्षा की मांग की गई। बिरसा मुंडा ने हजारों आदिवासी अनुयायियों को एकत्रित कर सशस्त्र प्रतिरोध किया, जिसमें पुलिस थानों और सरकारी भवनों पर हमले शामिल थे। सबसे प्रसिद्ध हमला 1897 में खूंटी पुलिस स्टेशन पर किया गया, जहां बिरसा ने गुरिल्ला युद्ध शैली का उपयोग कर अंग्रेजी सेनाओं को चुनौती दी।
गिरफ्तारी और शहादत
बिरसा मुंडा की बढ़ती ताकत को देखते हुए ब्रिटिश प्रशासन ने उन्हें पकड़ने के लिए प्रयास तेज कर दिए। 3 मार्च 1900 को उन्हें जमकोइपाई वन में गिरफ्तार कर लिया गया और रांची जेल में बंद कर दिया गया। 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु का कारण आधिकारिक तौर पर हैजा बताया गया, लेकिन उनके निधन को लेकर कई सवाल खड़े हुए। उनकी मृत्यु के बाद, उनके नेतृत्व में चलने वाले आदिवासी आंदोलन ने कुछ समय के लिए गति खो दी, लेकिन उनकी शहादत के बाद उनका नाम और उनका संघर्ष हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज हो गया।
विरासत
वीर बिरसा मुंडा की विरासत आज भी भारतीय समाज में जीवित है। आदिवासी समुदायों के लिए वह ‘धरती अबा’ या ‘पृथ्वी के पिता’ के रूप में पूजे जाते हैं। उनकी संघर्षों के कारण आदिवासी भूमि अधिकारों की रक्षा के लिए कई सुधार हुए, और उनका प्रभाव झारखंड के चोटो नागपुर क्षेत्र में 1908 में पारित ‘चोटो नागपुर पट्टेदारी कानून’ पर पड़ा, जिसका उद्देश्य आदिवासी भूमि की शोषण से रक्षा करना था।
बिरसा मुंडा का योगदान आज भी भारतीय आदिवासी आंदोलनों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनके द्वारा स्थापित बुनियादी अधिकारों की रक्षा के विचार ने आदिवासी समुदायों को जागरूक किया और उन्हें अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी। उनके योगदान को याद करते हुए, उनके जन्मदिवस को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
उनकी याद में कई संस्थानों और स्थानों का नामकरण भी किया गया है, जिनमें रांची का ‘बिरसा मुंडा हवाई अड्डा’ और कई शिक्षा संस्थान प्रमुख हैं। उनके जीवन की कहानी आज भी आदिवासी अधिकारों और न्याय के लिए संघर्ष कर रहे लोगों को प्रेरित करती है और उनके विचारों ने आदिवासी समाज को सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से सशक्त किया है।
वीर बिरसा मुंडा का जीवन आदिवासी समाज के लिए एक आदर्श है। उन्होंने अपनी जिंदगी में जो संघर्ष किया, वह न केवल अंग्रेजों के खिलाफ था, बल्कि यह आदिवासी समाज की स्वतंत्रता, संस्कृति और पहचान के लिए भी था। उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अद्वितीय है और उनका नाम हमेशा आदिवासी आंदोलन के इतिहास में अमर रहेगा। उनका संघर्ष और उनका दृष्टिकोण हमें यह सिखाता है कि किसी भी समुदाय को उनके अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता और हर किसी को अपनी पहचान और संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार है।