General Knowledge: जब जज ने ही छुपाया नाम! अब जानिए क्या आम आदमी भी ‘XXX’ बनकर याचिका दाखिल कर सकता है?

General Knowledge: जब जज ने ही छुपाया नाम! अब जानिए क्या आम आदमी भी ‘XXX’ बनकर याचिका दाखिल कर सकता है?

General Knowledge: आमतौर पर जब कोई व्यक्ति अदालत में ‘XXX’ नाम से याचिका दायर करता है, तो अदालत की फटकार झेलनी पड़ सकती है। लेकिन अगर यही काम कोई हाईकोर्ट का जज करे, तो मामला हैरान करने वाला बन जाता है। ऐसा ही एक मामला सामने आया है, जिसमें हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में खुद की पहचान छिपाकर ‘XXX’ नाम से याचिका दाखिल की है। गौरतलब है कि उनके आवास से बोरियों में नकदी मिलने के मामले में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव लंबित है। इस घटना ने कानूनी और नैतिक दोनों स्तरों पर बहस छेड़ दी है कि क्या कोई आम नागरिक भी इस तरह की गोपनीयता की मांग कर सकता है?

‘XXX’ नाम कब और क्यों किया जाता है इस्तेमाल?

सुप्रीम कोर्ट में जब यह याचिका जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ के सामने आई, तो उन्होंने पाया कि याचिकाकर्ता के नाम की जगह ‘XXX’ लिखा गया है। सामान्यतः अदालत में यह तरीका उन मामलों में अपनाया जाता है जहाँ याचिकाकर्ता यौन उत्पीड़न या दुष्कर्म का शिकार होता है, विशेषकर महिलाओं और नाबालिगों के मामले में। इसके अलावा, बच्चों की कस्टडी या संवेदनशील पारिवारिक मामलों में भी पहचान छिपाने के लिए ऐसा किया जाता है। यह प्रथा संवैधानिक गोपनीयता के सिद्धांतों पर आधारित होती है।

जस्टिस वर्मा ने क्या मांगा है अपनी याचिका में?

इस याचिका में जस्टिस वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट से गुज़ारिश की है कि उनके खिलाफ की गई आंतरिक जांच समिति की रिपोर्ट को रद्द किया जाए, जिसमें उन्हें घर से नकदी बरामद होने का दोषी बताया गया है। उन्होंने जस्टिस संजीव खन्ना की 8 मई की उस सिफारिश को भी निरस्त करने की मांग की है, जिसमें उनके खिलाफ संसद में महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने की बात कही गई थी। इस याचिका के माध्यम से जस्टिस वर्मा ने अपनी पहचान को सार्वजनिक न करने की भी गुज़ारिश की है।

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क्या आम नागरिक भी ‘XXX’ नाम से याचिका दाखिल कर सकता है?

यह मामला इसलिए और भी अहम हो जाता है क्योंकि यह सवाल उठता है कि क्या एक आम व्यक्ति को भी अदालत में अपनी पहचान छिपाकर ‘XXX’ नाम से याचिका दाखिल करने की अनुमति मिल सकती है? आमतौर पर ऐसा केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही संभव होता है, जैसे कि यौन हिंसा या नाबालिगों से जुड़े मामलों में। लेकिन यहां जब एक उच्च न्यायालय का न्यायाधीश ही इस व्यवस्था का लाभ लेता है, तो यह एक असमानता की भावना उत्पन्न करता है। सवाल यह भी है कि क्या न्यायपालिका में पारदर्शिता और समानता की अवधारणाएं केवल आम नागरिकों पर लागू होती हैं? यह मामला इस विषय पर गहन विचार और न्यायिक स्पष्टता की मांग करता है।

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