Ajivikas and Other Ascetics: जैन और बौद्ध से अलग थी आजीविक परंपरा, जानिए इसके कठोर तप के रहस्य

Ajivikas and Other Ascetics: जैन और बौद्ध से अलग थी आजीविक परंपरा, जानिए इसके कठोर तप के रहस्य

Ajivikas and Other Ascetics: आजीविक एक प्राचीन श्रमण परंपरा थी जो जैन और बौद्ध धर्म के समकालीन थी। इस संप्रदाय की स्थापना मक्कलि गोसाल (Makkhali Gosala) ने की थी जो छठी शताब्दी ईसा पूर्व में बिहार के क्षेत्र में सक्रिय थे। मक्कलि गोसाल कभी महावीर के सहयात्री रहे लेकिन बाद में उन्होंने एक स्वतंत्र संप्रदाय की स्थापना की। यह परंपरा मुख्यतः दार्शनिक विचारों और तप के कठोर नियमों पर आधारित थी।

नियतिवाद और आत्मनिग्रह का सिद्धांत

आजीविक संप्रदाय का सबसे प्रमुख सिद्धांत नियतिवाद था। उनके अनुसार ब्रह्मांड में हर घटना पहले से तय है और मनुष्य की कोई भी क्रिया उसका परिणाम नहीं बदल सकती। वे मानते थे कि समय, भाग्य और प्रकृति की शक्तियाँ इतनी प्रबल हैं कि उनसे कोई बच नहीं सकता। आजीविकों ने आत्मनिग्रह और तप को जीवन का अनिवार्य हिस्सा माना और कठोर संयम व त्याग का पालन करते थे।

समाज में स्थिति और प्रभाव

हालाँकि आजीविक परंपरा आज लुप्त हो चुकी है लेकिन अपने समय में यह संप्रदाय उत्तर भारत के मगध, कोसल और विदेह जैसे राज्यों में लोकप्रिय था। मौर्य सम्राट बिंदुसार ने भी इस संप्रदाय को संरक्षण दिया था। यह संप्रदाय सामाजिक भेदभाव का विरोधी था और सभी जातियों और वर्गों के लिए खुला था। उन्होंने नग्नता, तप और ध्यान के कठोर रूपों को अपनाया।

Ajivikas and Other Ascetics: जैन और बौद्ध से अलग थी आजीविक परंपरा, जानिए इसके कठोर तप के रहस्य

अन्य श्रमण परंपराएँ

आजीविकों के अलावा छठी शताब्दी ईसा पूर्व में और भी कई श्रमण परंपराएँ उभरीं। इन परंपराओं में बौद्ध, जैन, अज्नानिक (skeptics) और चार्वाक जैसे भौतिकवादी दर्शन भी शामिल थे। इन सभी ने वैदिक ब्राह्मणवाद की सत्ता को चुनौती दी और यज्ञों तथा पशु बलि की आलोचना की। बौद्ध धर्म ने मध्यम मार्ग को अपनाया और करुणा, ध्यान और नैतिक जीवन को प्राथमिकता दी। जैन धर्म ने अहिंसा और अपरिग्रह को मुख्य दर्शन बनाया। वहीं चार्वाक दर्शन ने आत्मा, पुनर्जन्म और ईश्वर जैसी अवधारणाओं को नकारते हुए भौतिक सुख को ही जीवन का उद्देश्य बताया।

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लुप्त हो जाना और ऐतिहासिक महत्त्व

समय के साथ बौद्ध और जैन धर्म को संस्थागत समर्थन मिलने लगा जबकि आजीविक परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती गई। इसका एक कारण यह भी था कि इनके नियतिवादी सिद्धांत लोगों को उतना प्रेरित नहीं कर सके जितना कर्म और मुक्ति के विचारों ने किया। हालाँकि आज आजीविक संप्रदाय मौजूद नहीं है लेकिन इसका ऐतिहासिक महत्त्व अत्यंत गहरा है। इसने भारतीय दर्शन और धार्मिक बहुलता में एक स्वतंत्र और साहसी आवाज़ के रूप में अपना स्थान बनाया। यह उन विचारों का प्रतीक है जो स्वतंत्र चिंतन और कठोर तप के मार्ग को मान्यता देते हैं। आजीविक और अन्य श्रमण परंपराएँ उस दौर की धार्मिक जागरूकता और चिंतनशीलता की मिसाल हैं। इन्होंने भारतीय समाज को केवल धर्म के स्तर पर नहीं बल्कि नैतिकता और सामाजिक चेतना के स्तर पर भी गहराई से प्रभावित किया।

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