Prithviraj chauhan: भारत के मध्यकालीन इतिहास में पृथ्वीराज चौहान का नाम एक वीर योद्धा और साहसी शासक के रूप में दर्ज है। उनका जन्म 1166 के आसपास हुआ था और वे चौहान वंश के थे। पृथ्वीराज ने मात्र 11 साल की उम्र में गद्दी संभाली थी और उनके राज्य की सीमाएं उत्तर में स्थानवेश्वर (थानेसर) से लेकर दक्षिण में मेवाड़ तक फैली हुई थीं। उनकी गिनती राजस्थान के सबसे ताकतवर राजाओं में होती है। जब उन्होंने शासन संभाला तो एक बड़ी चुनौती उनके चचेरे भाई नागार्जुन की बगावत के रूप में सामने आई। उन्होंने इस विद्रोह को कुचल कर अपने शासन को स्थिर किया और इसके बाद उन्होंने भड़ानक वंश को भी पूरी तरह समाप्त कर दिया जो दिल्ली के आसपास के इलाकों में चौहानों के लिए खतरा बने हुए थे।
पृथ्वीराज चौहान की विजयगाथाएं और शौर्य की मिसाल
1182 में पृथ्वीराज ने बुंदेलखंड के चंदेल शासक परमर्दिदेव को युद्ध में हराया था। इस विजय से पृथ्वीराज की ख्याति और बढ़ गई लेकिन साथ ही उनके दुश्मनों की संख्या भी बढ़ती गई। चंदेलों और गहड़वालों ने उनके खिलाफ मोर्चा बना लिया और उन्हें अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए और ज्यादा सैन्य संसाधनों की ज़रूरत महसूस हुई। पृथ्वीराज ने गुजरात के शक्तिशाली शासकों के विरुद्ध भी मोर्चा खोला था लेकिन इस अभियान की विस्तृत जानकारी बहुत कम मिलती है। इन आक्रामक अभियानों के चलते उनकी टकराहट गहड़वाल शासक जयचंद्र से भी हो गई।
संयोगिता और पृथ्वीराज की प्रेमकथा और राजनीतिक तनाव
पृथ्वीराज और जयचंद्र की शत्रुता को रोमांचक मोड़ तब मिला जब पृथ्वीराज ने जयचंद्र की बेटी संयोगिता से प्रेम कर विवाह कर लिया। लोककथा के अनुसार पृथ्वीराज ने संयोगिता का स्वयंवर जीतने के बाद उसे जयचंद्र के महल से भगा लिया था। यह घटना उनके प्रेम की मिसाल बन गई लेकिन इससे जयचंद्र की नाराजगी और भी बढ़ गई। यह भी माना जाता है कि जयचंद्र ने मोहम्मद गौरी को भारत पर आक्रमण के लिए प्रेरित किया ताकि वह पृथ्वीराज से बदला ले सके। हालांकि इतिहासकार इस प्रेमकथा को लेकर एकमत नहीं हैं लेकिन यह घटना चंदबरदाई के ‘पृथ्वीराज रासो’ जैसे महाकाव्यों में अमर हो चुकी है।
मोहम्मद गौरी और तराइन के युद्ध
उधर अफगानिस्तान के गौर क्षेत्र से मोहम्मद गौरी ने भारत में अपना साम्राज्य फैलाना शुरू कर दिया था। 1190 में उसने भटिंडा पर कब्जा कर लिया जो पृथ्वीराज के राज्य का हिस्सा था। इसके जवाब में पृथ्वीराज ने अपने सैनिकों के साथ गौरी की सेना से टकराव किया। 1191 में पहला तराइन का युद्ध हुआ जिसमें गौरी की सेना को करारी हार का सामना करना पड़ा और गौरी स्वयं घायल होकर युद्ध से भाग गया। लेकिन गौरी ने हार नहीं मानी। अगले साल यानी 1192 में वह एक बड़ी सेना लेकर दोबारा तराइन पहुंचा। इस बार उसने युद्ध की रणनीति बदली और तुर्क, अफगान और फारसी सैनिकों के साथ मिलकर युद्ध को गति और रणनीति के बल पर जीता।
पृथ्वीराज की पराजय और भारतीय इतिहास की दिशा परिवर्तन
दूसरे तराइन युद्ध में पृथ्वीराज की विशाल सेना में आपसी मतभेद और नेतृत्व की कमी थी। गौरी ने घुड़सवार धनुर्धारियों के जरिए पृथ्वीराज की सेना की पहली पंक्ति को परेशान किया और फिर अपनी भारी घुड़सवार सेना से हमला बोला। पृथ्वीराज की सेना हार गई और खुद वह युद्ध से भागने की कोशिश में पकड़े गए। बाद में उन्हें और उनके कई सेनापतियों को मार दिया गया। इस युद्ध के बाद उत्तर भारत में संगठित हिंदू प्रतिरोध लगभग समाप्त हो गया और मुस्लिम शासन की नींव पड़ गई जो आगे चलकर दिल्ली सल्तनत में बदल गई।
ग़ोरी और दिल्ली सल्तनत की नींव
मोहम्मद गौरी और उनके भाई ग़ियास उद्दीन के नेतृत्व में ग़ोरी वंश ने अफगानिस्तान से लेकर भारत तक एक मजबूत साम्राज्य खड़ा किया। मोहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में सत्ता की बागडोर संभाली और दिल्ली सल्तनत की नींव रखी। इसके बाद राजपूत राजाओं ने कई बार अपने क्षेत्र वापस पाने की कोशिश की लेकिन गहराते मुस्लिम प्रभाव के चलते वे सीमित इलाकों तक सिमट गए। हालांकि मेवाड़ और मारवाड़ जैसे कुछ राज्यों ने स्वतंत्रता बरकरार रखी और मुगलों से लंबे समय तक लड़े।
राजपूतों का स्वाभिमान और भारत में योगदान
राजपूतों की पहचान एक गौरवशाली योद्धा वर्ग के रूप में रही है जो अपने वंश, सम्मान और मातृभूमि के लिए लड़ते रहे। पृथ्वीराज चौहान जैसे वीरों ने जहां एक ओर युद्ध कौशल की मिसाल पेश की, वहीं दूसरी ओर उनका पतन भारत के इतिहास में एक बड़ा मोड़ साबित हुआ। उन्होंने भले ही अंतिम समय में हार का सामना किया हो लेकिन उनकी शौर्यगाथाएं आज भी लोगों के मन में प्रेरणा का स्रोत हैं। आज भी राजस्थान और भारत के अन्य हिस्सों में पृथ्वीराज चौहान का नाम गर्व और श्रद्धा से लिया जाता है। उनका जीवन और बलिदान भारतीय इतिहास का अमिट अध्याय बन चुका है।